
फिर से करूँ तुमसे बातें तमाम..
बेहिचक नादानी भरी, मन की जजबातें
जैसे करता था बचपन मे..अठखेली
क्यों रोक लेता है मेरा मन ,
क्यों रुठ जाते हैं बोल,
कपकंपा जातें हैं होंठ,
मन करता है बार-बार सवाल,
आखिर क्यों...?
वजह...
मेरा बढ़ाता कद है या
झूठे अभिमान की चादर,
या फिर...
तुम्हारे पुराने ख्यालात...!!
उलझ जाता हूँ मैं ,
करूं क्या उपाय, पूछता हूँ खुद से रोज-ब-रोज...!!
शायद मैं ! अब बड़ा हो गया हूँ..
उम्र से, कद से, या फिर अहम से
या फिर...
संकोच के बादल से घिर गए है मन मे...!!
यही सच है...हाँ, यही सच है
शब्द ऐसे ही गूंजते हैं मन मे..
हाँ ,यही सच हैं..?
लेटा जो एक दिन .माँ के गोंद में सर रखकर..
मुड के देखा माँ की आँखों में...
वही दुलार, वही प्यार, वही अपनापन,
देखकर चौक गया मै...
माँ ने दुलारा जो मुझे प्यार से,
बह चले चंद आंसू ,निर्मल आँखों से...
बह चला साथ ही सारा संकोच,सारा अभिमान...
रह गए तो बस.. हिलोरे लेतीं यादें..
पल में भूल गया खुद को...
याद रहा तो बस...
माँ तेरे स्पर्श, छुवन, प्रेणना और आदर्श...
हां !...माँ बस तेरा दुलार, तेरा अपनापन....
बस तेरा अपनापन................. {अधीर}